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त्रितीय त्रेमासिकी गर्भावस्था कलर डॉपलर अल्ट्रासोनोग्राफी परीक्षण भारतीय रेडियोलॉजिकल एंड इमेजिंग एसोसिएशन [ आईआरआईए ] का निवारण कार्यक्रम भ्रूण वृद्धि असामान्यताओं को इंगित करने की सर्वोत्तम विधि |

लेखक: डॉ ललित शर्मा (Guna, Madhya Pradesh), डॉ आकांक्षा बघेल (Harda,Madhya Pradesh), डॉ गुलाब छाजेड़ (Sumerpur, Rajasthan), डॉ रिजो मैथ्यू चूरकुटिल (Kochi, Kerala), डॉ प्रवीण निर्मलन (Kochi, Kerala)

भ्रूण वृद्धि प्रतिबंध (एफजीआर) तब होता है, जब एक गर्भस्थ शिशु या भ्रूण अपनी प्राकृतिक पूर्ण विकास क्षमता तक पहुंचने में विफल रहता है। चूँकि ऐसे गर्भस्थ शिशु भ्रूण में प्रसवकालीन प्रतिकूल परिणामों के साथ – साथ तंत्रिका विकास विकारों की सम्भावना अत्यधिक होती है, अतः इसे सही समय पर पहचान कर उचित निवारक उपाय अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं | यहाँ यह भी उल्लेखनीय है की शीघ्र एफजीआर [< ३२ सप्ताह पूर्व ] में, विलंबित एफजीआर [ > ३२ सप्ताह ] की अपेक्षा प्रतिकूल परिणामों की सम्भावना अधिक होती है |

यहाँ यह ज्ञात होना अत्यंत आवश्यक है, कि मानव गर्भस्थ शिशु भ्रूण वृद्धिदर गर्भवती माँ की उत्तम परिस्थियों में भी एक समान नहीं होती है, वृद्धिदर में अत्यधिक विविधिता होती है, जिनके ज्यादातर कारण अभी तक ज्ञात नही हैं | वृद्धिदर के लिए कई और कारण भी उत्तरदाई हो सकते हैं – जैसे कुपोषण, ऑक्सीजन की कमी ,प्लेसेंटा [ अपरा या आंवल], संरचनात्मक या अंग विकृतियों संबंधी असामान्यताएँ |

भ्रूण वृद्धि प्रतिबंध (एफजीआर) गर्भस्त शिशु [ भ्रूण ] को FGR के रूप में परिभाषित करने के लिए प्रथम त्रैमासिकी में निर्धारित संभावित प्रसव तिथि अनुसार, तृतीय त्रैमासिकी परीक्षण में गर्भस्थ शिशु भ्रूण वृद्धिदर कितनी है [ १० परसेंटाइल से कम को SGA, १०-९० को AGA, >९० LGA ] देखने के उपरांत डॉपलर परीक्षण का उपयोग भ्रूण वृद्धि प्रतिबंध (एफजीआर) ज्ञात करने के लिया किया जाता है | चूँकि एक गर्भस्थ शिशु भ्रूण की, वृद्धि दर १० परसेंटाइल से कम को (SGA) भ्रूण वृद्धि प्रतिबंध (एफजीआर) माना जाता है, जो कि माँ -पिता के शारीरिक रूप से कद काठी में छोटे होने पर गर्भस्थ शिशु का विकास उन्हीं की तरह कम हो सकता है, ऐसे गर्भस्थ शिशु भ्रूण में डॉप्लर परीक्षण सामान्य होकर प्रसवोत्तर विकास सामान्य विकास वाले बच्चों के समान ही होता हैं, अतः इन्हें भ्रूण वृद्धि प्रतिबंध (एफजीआर) की श्रेणी में रखना अनुचित होगा । इसके इतर सामान्य  [ AGA ], अति वृद्धि [ LGA ] में डॉप्लर परीक्षण असामान्य हो सकते हैं, जो भ्रूण वृद्धि प्रतिबंध (एफजीआर) की स्थिति दर्शाते हैं और ऐसे ही भ्रूण में प्रसव कालीन प्रतिकूल परिणामों की सम्भावना अधिक होती है |

डॉप्लर विधि ही मात्र ऐसा माध्यम है, जिससे गर्भ में पल रहे बच्चे के समुचित विकास की जानकारी मिलती है, और बच्चे का विकास अगर कम प्रतीत होता है, तो इस बारे में सहायता मिलती है, कि इसे SGA में वर्गीकृत किया जाए या FGR में | अतः डॉपलर अल्ट्रासोनोग्राफी परीक्षण विधि ही भ्रूण वृद्धि प्रतिबंध (एफजीआर)  को परिभाषित करने की सर्वोत्तम एवं उचित विधि है | चूँकि ऐसे ही गर्भस्थ शिशु भ्रूण प्रसवकालीन मृत्यु को प्राप्त होते हैं या इन्हें दीर्घकालीन तंत्रिका विकास विकारों ,सेरिब्रल पाल्सी जैसे विकार या युवावस्था में अन्य कार्डियोवैस्कुलर ,उच्च रक्तचाप, डायबिटीज जैसी बीमारियों से 50 % तक पीड़ित होने की सम्भावना प्रबल होती है, अतः भ्रूण वृद्धि प्रतिबंध (एफजीआर)  की सही समय पहचान तदनुसार निवारण उपाय जो डॉपलर अल्ट्रासोनोग्राफी परीक्षण विधि से ही संभव है तथा इस तरह भविष्य में होने वाले अवांछनीय परिणामों को रोकने का सर्वोत्तम समाधानिक उपाय है |

इसलिए IRIA संरक्षण एक ऐसा राष्ट्रीय कार्यक्रम है, जो गर्भावस्था की प्रत्येक तिमाही में डॉप्लर विधि के उपयोग से भविष्य में होने वाले अवांछनीय परिणामों की रोकथाम के लिए एक बड़े ही सशक्त माध्यम के रूप में सामने आया है ।

तीसरी तिमाही की बात करें तो गर्भाशय और गर्भ में पल रहे बच्चे के शरीर की जिन वाहिकाओं का डॉपलर विधि से मापदंड किया जाता है उनमें प्रमुख हैं : मीन यूटेराईन आर्टरी पल्सलिटी इंडेक्स (mean uterine artery pulsatility index – PI ) मतलब ये मापदंड उन दो रक्त वाहिकाओं के कुल रक्तप्रवाह को दर्शाता है, जो माता के गर्भ को पोषित करती हैं जिन्हें यूटरीन आर्टरी कहतें हैं। दूसरा मापदंड है अम्बिलिकल आर्टरी पल्सलिटी इंडेक्स (umbilical artery PI) – ये डॉप्पलर मापदंड उस वाहिका के रक्त प्रवाह को दर्शाता है, जो प्लेसेंटा (अपरा या कहें आंवल) से सीधा भ्रूण को उसकी नाभी के माध्यम से जोड़ता है। तीसरा मापदण्ड है, मिडिल सेरेब्रल आर्टरी डॉप्लर (MCA) जो की भ्रूण के दिमाग की रक्तवाहिकाओं में ऑक्सीजन के स्तर को बताता है। और चौथा मापदण्ड है, सेरेब्रोप्लासेंटल अनुपात (सीपीआर) जो की अम्बिलिकल आर्टरी और मिडिल सेरेब्रल आर्टरी डॉप्पलर (MCA) मापदंडों का तुलनात्मक अध्ययन है, मोटे तौर पर कहें अम्बिलिकल आर्टरी के रक्त प्रवाह की तुलना में MCA के डॉप्पलर का कैसा रिस्पॉन्स है यह बताता है, यह मापदण्ड पल रहे बच्चे की ऑक्सीजन सप्लाई के लिए सबसे ज्यादा संवेदनशील होता है। इन चारों डॉपलर मापदंडों में से किसी भी एक या एक से अधिक में उस गर्भकाल के हिसाब से गड़बड़ी आए तो इसे असामान्य डॉपलर अध्ययन माना जाता है और असामान्यता की गम्भीरता के आधार पर या मोटे तौर पे ये कहें कि गर्भ में पल रहा बच्चा किस हद तक ऑक्सिजन और पोषण की कमी से जूझ रहा है और उसमें विपरीत परिणामों के कैसे लक्षण/ संकेत मिल रहे हैं, इन्हें अलग अलग चार श्रेणी में वर्गीकृत किया जाता है जिसे FGR स्टेज बेस्ड वर्गीकरण कहते हैं ।

IRIA सरंक्षण के इस रोकथाम कार्यक्रम में नौ राज्यों की 4,372 आखिरी तिमाही की गर्भवती महिलाओं की जांच के परिणामों का विश्लेषण किया गया। जिसमें, FGR और SGA का प्रतिशत क्रमशः 498 (11.39%) और 386 (8.83%) था। यदि गर्भ में पल रहे शिशु को आखिरी तिमाही के गर्भकाल की तुलना में मात्र 10 प्रतिशत से नीचे के वजन प्रतिशत के आधार पर वर्गीकृत किया जाए जिसमें डॉप्लर शामिल नहीं है, तो जांच की गई आबादी में 884 (20.22%) शिशु ऐसे होंगे जिन्हें असामान्य वृद्धि में वर्गीकृत करना पड़ेगा । और यदि सोनोग्राफी करते समय डॉप्लर विधि का भी उपयोग किया जाए तो परिभाषानुसार सही अर्थों में असामान्य वृद्धि (जिसे FGR कहते हैं ) का एक महत्वपूर्ण स्तरीकरण 20.22% से 11.39% हो गया और शेष 8.83% को SGA के रूप में वर्गीकृत किया जाना संभव हो सका क्योंकि ये वो शिशु हैं, जो भले ही दिए गए गर्भकाल की तुलना में छोटा साइज दिखा रहे हों लेकिन डॉप्लर विधि से इनमें समान्य रक्त प्रहाव पाया गया। यह वर्गीकरण इलाज़ के लिहाज़ से बहुत महत्वपूर्ण है। जिस भी प्रेग्नेसी को डॉप्लर विधि के बाद FGR में वर्गीकृत किया जाता है, उन्हें विशेष निगरानी की आवश्यकता होती है, जो कि महिला और परिवार के लिए चिकित्सा के कार्यभार के साथ ही प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लागत को महत्वपूर्ण रूप से बढ़ा देता है। किसी भी प्रतिकूल घटना के जोखिम को रोकने के लिए इन शिशुओं को ऑपरेशन से डिलीवर कराने की संभावना भी बढ़ जाती है और कई मामलों में निर्णय आकस्मिक लेना पड़ता है। दिए गए गर्भकाल से कमतर बढ़त के सभी भ्रूण असामान्य वृद्धि वाले नहीं होते सिर्फ डॉप्पलर विधि के उपयोग से जाना जा सकता है, कि इसे SGA में वर्गीकृत किया जाए या FGR में क्योंकि SGA दर्शाने वाले भ्रूणों को एक समान्य बढ़ते बच्चे के तौर पे लिया जा सकता है, भले ही उनकी वृद्धि साइज छोटा होने के कारण कमतर दिखे लेकिन समान्य रक्त प्रवाह बहुत हद तक भविष्य में जन्म के बाद उनकी समान्य वृद्धि को सुनिश्चित करता है । इससे महिला और परिवार पर तनाव कम होता है, साथ ही प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लागत भी कम होती ही है। यह अस्पतालों के कार्यभार को भी कम करता है, क्योंकि इन शिशुओं का प्रसव समय पर और सामान्य तरीकों से किया जा सकता है । डॉपलर का उपयोग करते हुए FGR और SGA का अलग वर्गीकरण जरूरी है साथ ही FGR वाले शीशुओं का रक्तप्रवाह में असामान्यता की गंभीरता के आधार पर क्लिनिकल स्टेजिंग उपयोगी है, क्योंकि इससे ही जाना जा सकता है, कि कितने अंतराल में दोबारा दिखाने की जरूरत है और बच्चा असल में FGR की कौन सी अवस्था से जूझ रहा है या सरल शब्दों में कहें कि ऑक्सिजन की लगभग कितने प्रतिशत कमी आई है, इससे संकट का सटीक अंदाजा लगाया जाता है और किस समय और किस माध्यम से डिलेवरी कराई जाए इस बात का सटीक आंकलन किया जा सकता है । परिणामस्वरूप, सोनोग्राफी में डॉपलर विधि शामिल करने से सिजेरियन दरों, समय से पहले जन्म दर, प्रतिकूल घटनाओं और सर्जिकल डिलीवरी से जुड़ी जटिलताओं को कम करने में काफ़ी मदद मिल सकती है।

भारत में सालाना 250 लाख जन्म और प्रतिदिन 67,385 जन्म होते हैं। दिए गए गर्भकाल की तुलना में असामान्य वृध्दि कि 20.22% गंभीरता के आधार पर भारत में हर साल लगभग 50 लाख शिशुओं को FGR के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। यदि डॉप्लर परीक्षणों को शामिल कर शिशुओं को पुनर्वर्गीकृत किया जाए, तो सहीं मायनों में यह आंकड़ा 50 लाख से गिरकर लगभग 28 लाख FGR शिशुओं तक हो जाता है, क्योंकि बाकियों में रक्त प्रवाह समान्य होता है, जिन्हें SGA शिशु कहते हैं ये संख्या लगभग 22 लाख की हुई, जिन्हें सामान्य रूप से विकासशील शिशुओं के रूप में लिया जा सकता है। इस महत्वपूर्ण गिरावट का सीधा फायदा सिजेरियन सेक्शन दरें कम करने में, समय से पहले जन्म दर और प्रसवकालीन मृत्यु दर कम करने में भारत की स्वास्थ्य देखरेख प्रणाली को होगा। इंडियन रेडियोलॉजिकल एंड इमेजिंग एसोसिएशन (IRIA) की पहल के रोकथाम कार्यक्रम के आंकड़ों का प्रारंभिक विश्लेषण इस बात कि आवश्यकता पर प्रकाश डालता है, कि सोनोग्राफी में डॉप्पलर विधि का नियमित इस्तेमाल और रक्त प्रवाह में असामान्यता की गम्भीरता के आधार पर FGR का स्टेजवाइस वर्गीकरण कितना आवश्यक है |

Dr Rijo Mathew

Written by Dr Rijo Mathew

Dr.Rijo completed his basic medical education from the Government Medical College, Thrissur, at Kerala, India, and his MD in Radiology from BJ Medical College, Ahmedabad, India. Subsequently, he worked as a Senior Registrar at Jaslok Hospital at Mumbai, India.

Dr. Rijo Mathew is a Member , Scientific Advisory Committee, IRIA, Member in Charge of Ultrasound, Career Assurance Program, IRIA, & In Charge, National Fetal Radiology CME Programmes of IRIA. Dr Rijo is the National Coordinator for Samrakshan, an IRIA program of IRIA that aims to reduce perinatal mortality in India.

ഇന്ത്യൻ റേഡിയോളജിക്കൽ ആൻഡ് ഇമേജിംഗ് അസോസിയേഷൻ IRIAയുടെ സംരക്ഷൻ പ്രോഗ്രാമിൽ ഗർഭാവസ്ഥയുടെ മൂന്നാം ത്രിമാസത്തിലെ കളർ ഡോപ്ലർ അൾട്രാസോണോഗ്രാഫി കുഞ്ഞുങ്ങളുടെ വളർച്ചാവ്യതിയാനങ്ങളെ ഗണ്യമായി പുനഃക്രമീകരിക്കുന്നു.

ഇന്ത്യയിലെ ഗർഭിണികളുടെ രണ്ടാം ത്രിമാസ വിലയിരുത്തൽ, ഗർഭപാത്രത്തിലുളള ശിശുവിന്റെ വൈകല്യങ്ങൾ കൂടാതെ, രക്തസമ്മർദ്ദത്തിന്റെ അസാധാരണമായ വർദ്ധനവ് (പ്രീ-എക്ലാംപ്സിയ അല്ലെങ്കിൽ PE), കുഞ്ഞിന്റെ വളർച്ച കുറയുന്നത് (FGR) എന്നിവയിൽ ശ്രദ്ധ കേന്ദ്രീകരിക്കേണ്ടതുണ്ട്.